Sunday, October 8, 2017




तुम आना
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बीत जाये जब पौष,

तब आना तुम।
क्योंकि आना है तुम्हें सदा के लिए।

हेमंत ऋतु की शीत पर
विरह की अग्नि में
तापूँगी तुम्हारी प्रतीक्षा।


अनामिका चक्रवर्ती अनु





पश्चिम की खिड़की
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तुम्हारे मौन से सारे शब्द निराकार हो जाते हैं
उन्हें वर्णो के साथ मात्राओं के आभूषण से सुसज्जीत करती हूँ
परन्तु तुम तक उनको पहूँचाना
जैसे पूर्व से उगने वाले सूर्य को
पश्चिम से आने का आमंत्रण देना है
मैं पश्चिम की खिड़की से देखती हूँ जाते हुए तुम्हें
पूर्व की दिवारों पर धूप को रोके छाया सी
देखना चाहती हूँ कभी तुम्हें अपनी ओर आते हुए बढ़ती धूप की तरह
परन्तु पूर्व में न कोई खिड़की खुलती है
न दरवाजा जिससे आती हुई धूप से
तपना चाहती हूँ और तपते हुऐ
मात्राओं के आभूषण से सजे शब्दों से
तुम्हारा मौन का स्वर पढ़ना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ कितने कोरस हैं तुम्हारे
मौन के स्वर में ।
धनुष
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तुम अपने धनुष जैसे होंठो की प्रत्यंचा से
छोड़ो एक बाण ऐसा प्रवल वेग से
जो भेद के हृदय को,
पुलकित कर दे उसका रोम रोम
मन ठहर जाए व्याकुल नदी की धार में
डब डब करती नाव सी
चूम ले नाविक अपनी पतवार को
पंचअमृत की अंजली सी
लगे किनारे बालू के कण कण से लिपटे
जैसे स्वप्न सर्प ने रची हो लीला
रति क्रीड़ा सी शीतल जल की आँच में
जल जल के जल हो जाए
तुम्हारे धनुष जैसे होंठो के
दोनों किनारों की छोर से
दृश्य हो उत्पन्न दृष्टि में
अभिराम कुटिल मुस्कान सी।

Thursday, October 5, 2017

अनुबन्ध से मुक्त 

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भावनाएं कोमल हो और समय निष्ठुर,
तो चाहे कितना भी बचना चाहूँ
तुम्हें सोचने और न सोचने के बीच
शिव पर चढ़े हुए बहते पानी पर पैर पड़ ही जाता है
और पाप बोध से निकल जाती है जीभ काली की तरह
और फिर पैरों के गीले चिन्ह,
बार बार तुम्हें ही सोचने पर विवश हो जाते हैं
ये मन भी न, जरा सी नमी पर ही
दूब की तरह हरा हो जाता है।
और तब मैं जमा करती हूँ
दूब में से तीन पत्ती वाले दूब
क्योंकि देवता पर तो वही चढ़ाते है न
बेल पत्र के समान धतूरे के साथ
हाँ धतूरे के साथ ही उसके नील कंठ वाले पुष्प भी
क्योंकि ये जो तुम्हारे माथे पर शिव चिन्ह के तीन बल है न
इस पर अपनी तीन ऊँगलियों को आड़ा करके श्वेत चंदन संग भभूत तिलक करना है
और अपनी ऊँगलियों में बची भभूत को अपनी आँखों पर मलना है
इस भभूत से मेरी आँखों की ज्योति बढ़ जाएगी
फिर मैं खोज सकूंगी तुम्हारी विस्मयी सी आँखों में
तुम्हारे होने के अविरल रहस्य को
परन्तु रहस्य का भेद खुले ये न चाहूँगी
रहस्य का भेद बना रहे शिव के नीलकंठ की तरह
क्योंकि शिव का ये सौन्दर्य विषाक्त विष है
और नहीं चाहती मैं इस विष से स्वयं को मुक्त करना
इसलिए इसे नील पुष्प में परिवर्तित कर तुम्हें समर्पित करती हूँ
ताकि तुम पुष्प ग्रहण करो और मैं तुम्हारे दर्शन लाभ..
शांत ज्वालामुखी सा तुम्हारे चंचल मन का तांडव नृत्य
और कामदेव सा आकर्षण मन को विचलित न कर दे
इसलिए तुम रहस्यमयी बने रहो और मेरी खोज का तुम पर कभी अंत न हो


©अनामिका चक्रवर्ती अनु