Tuesday, October 2, 2018

   तुम्हारी बातें

जब बार बार एक व्यवहार पलट पलट कर आता है प्रेम के अच्छे व्यवहार के अंतराल में तो प्रेम कहीं ओझल हो जाता है।
ऐसा लगता है जैसे प्रेम कहीं है ही नहीं, था ही नहीं जो जी रहे थे अब तक प्रेम समझकर वो कुछ और ही था परन्तु क्या ? ये समझ नहीं आता कि क्या था हमारे बीच ।

अजीब कशमकश है अचानक से आया परायापन प्रेम को जैसे छीन लेता है।
 यही है तो इस रिश्ते की सच्चाई क्या है वो कौन सी डोर है जो बाँधे हुए है। कौन सी तलब है जो मिटती नहीं बल्कि बढ़ती जाती है।

ऐसा क्यों लगता है जैसे सबकुछ एकतरफा है। प्रेम का क्या अर्थ है तुम्हारे लिए केवल मर्जी इसमें तुम्हारी भावनाएँ मतलबी सी क्यों है और फिर जीवन भर साथ चलने की बात भी है
एक साथ दो विपरीत बातें कैसे हो सकती हैं ।
वो कौन सा हिस्सा है जो मेरी आँखे नहीं देख पा रही है मेरा मन नहीं समझ पा रहा है।
मैं खुद को कब तक तसल्ली देती रहूँ अपने ही सवालों के खुद ही जवाब देकर आखिर इस घेरे से तुम मुझे क्यों नहीं निकालते मुझे ही खुद को दिलासा देकर क्यों निकलना पड़ता है ।
कहो .....

Sunday, March 25, 2018


तरल हो जाना

सरलता से तरल हो जाना
सहजता को परिभाषित नहीं करता
उसी अपरिभाषित सहजता के साथ
तरल हो जाना चाहती हूँ

पात्र के अनुरूप ही
उनके किनारों में बिना कोई दाग बने
बिना उनके किनारों से छलके
आकार हो जाना चाहती हूँ

नहीं जाना चाहती तरलता के
उस सत्य से बाहर
जहाँ तृप्त होने की तृष्णा को
मरिचिका का आभास हो

रहना चाहती हूँ
उसी सत्य के अदृश्य तह में ही
जहाँ तृष्णा को भी
तृप्त होने का पूर्ण विश्वास हो


अनामिका चक्रवर्ती अनु

 तरल हो जाना

सरलता से तरल हो जाना
सहजता को परिभाषित नहीं करता
उसी अपरिभाषित सहजता के साथ
तरल हो जाना चाहती हूँ

पात्र के अनुरूप ही
उनके किनारों में बिना कोई दाग बने
बिना उनके किनारों से छलके
आकार हो जाना चाहती हूँ

नहीं जाना चाहती तरलता के
उस सत्य से बाहर
जहाँ तृप्त होने की तृष्णा को
मरिचिका का आभास हो

रहना चाहती हूँ
उसी सत्य के अदृश्य तह में ही
जहाँ तृष्णा को भी
तृप्त होने का पूर्ण विश्वास हो

Monday, February 12, 2018

शापमुक्त


देह से निकली देह,  तुम मात्र देह नहीं हो
तुम्हें देह से स्त्री बनना होगा
तुम्हें वास्ता है उन तमाम स्त्रियों का
जो देह को स्त्री न बना सकी

और स्त्री होने की अतृप्त अभिलाषा मन में लिये
जीवन को अभिशाप की तरह भोगा है
जीवन के आनंद से हमेंशा वंचित रही

 स्त्री बनकर उन्हें शाप मुक्त करना होगा
उनकी आत्मा को मोक्ष दिलाना होगा
तुम्हारा स्त्री होना ही उनका स्त्री होना होगा

क्योंकि स्त्री माने ही सर्वशक्ति है सर्वधर्म है
स्त्री होना ॠणी होना नहीं है प्रकृति होना है
सम्मान और गर्व का प्रतिरूप ही स्त्री है।

स्त्री को देह से मुक्त कर स्त्री हो जाओ
पुरुष प्रधानता की दास या प्रतिदव्ंदी होकर नहीं
परस्पर होनें की प्रतिष्ठा होने को स्त्री होनें दो
देह से मुक्त स्त्री ही स्त्री जीवन का सत्य है।



अनामिका चक्रवर्ती अनु
नन्हीं गौरैया

जब चहचहाती हो तुम
मेरे घर आँगन में,
लगती हो जैसे

नन्हीं बेटी के पैरो में
छुनछुन करती पायल सी


चुगती हो जब तुम 

मेरे घर के अन्न का
मुट्ठी भर दाना 
खुश होती तब अन्नपूर्णा सी

तुम प्यारी गौरैया
मेरे बच्चों सी चिरैया
रोज मिलती हो तुम
पहली धूप बनकर


लगती हो तुम 
नन्हीं हथेलियों सी
और कभी लगती हो
अबोध मुस्कान सी



अनामिका चक्रवर्ती अनु 

Saturday, February 10, 2018

आँखों की भूख 

पेट की भूख 
जब आँखों में उतरने लगती है
तुम्हारे काँटे में फँसी 
मरी हुई मछलियाँ

तुम वापस पानी में छोड़कर,
ढूंढते हो
जिंदा मछलियाँ

उन्हें फिर मारकर खाने के लिए
भूख की आग में सेंक कर
अपने लोभ को पूरा करने के लिए

तुम्हारा यही स्वाभाव समाज में घुल गया
फिर तुम ढूंढने लगे
बार बार उन्हें शिकार बनाने को
कई बार

जिंदा मछलियों को फिर नये ढंग से
कांटे में फाँसने के लिए
भून कर खाने के लिए

तब भुनी हुई मछलियों से नहीं
तुम्हारे दोहरे चरित्र से बू आने लगी




©अनामिका चक्रवर्ती अनु



'आसमानी 
----------------

चखना चाहती हूँ 
नीले आसमां को 

क्या वो भी होता होगा
समंदर की तरह खारा।

लहरे कभी मचलती होगी वहाँ भी
चाँद के तट पर बैठकर,
छूना चाहती हूँ लहरों को।

कोई संगीत तो वहाँ भी 
जरूर गुनगुनाता होगा।
नर्म रेत पर कोई ,
अपनें प्रेयस का नाम लिखता होगा।

अपनी उदासियों को सौंपता होगा
जाती हुई लहरों को।
जो छुप जाती है होगी चाँद के पीछे कहीं।

यादों को लपेटकर चाँदनी में ,
सीप का मोती बनाता होगा कोई।

खुद ही डूब जाऊँ
समंदर को बाहों में समेटकर 
नीले आसमां में कहीं।
या चखकर बन जाऊँ आसमानी।

हाँ ,एक बार चखना चाहती हूँ
नीले आसमां को ।

©अनामिका चक्रवर्ती 'अनु'
9/1/2015'

आसमानी 

चखना चाहती हूँ
नीले आसमां को

क्या वो भी होता होगा
समंदर की तरह खारा।

लहरे कभी मचलती होगी वहाँ भी
चाँद के तट पर बैठकर,
छूना चाहती हूँ लहरों को।

कोई संगीत तो वहाँ भी
जरूर गुनगुनाता होगा।
नर्म रेत पर कोई ,
अपनें प्रेयस का नाम लिखता होगा।

अपनी उदासियों को सौंपता होगा
जाती हुई लहरों को।
जो छुप जाती है होगी चाँद के पीछे कहीं।

यादों को लपेटकर चाँदनी में ,
सीप का मोती बनाता होगा कोई।

खुद ही डूब जाऊँ
समंदर को बाहों में समेटकर
नीले आसमां में कहीं।
या चखकर बन जाऊँ आसमानी।

हाँ ,एक बार चखना चाहती हूँ
नीले आसमां को ।


©अनामिका चक्रवर्ती अनु

9/1/2015
प्रतीक्षा की पीड़ा 

तुम्हारी प्रतीक्षा की पीड़ा 
प्रत्येक पहर में अलग सी होती है

कभी हँसी में दबी होती है

कभी रोजमर्रे के कामों में उलझी रहती है

कभी रिश्तों और जिम्मेदारियों में सहमी होती है
कभी जीवन की आपा धापी में चुप सी रहती है

कभी शहर की भागती सड़कों सी भीड़ होती है
कभी गाँव की पगडंडियों सी सूनी रहती है

कभी डूबती हुई शाम में उदास होती है
कभी भोर की ओस में भीगी सी रहती है

कभी चाँद बनकर बादलों में छुपी होती है
कभी गीली पलकों में नींद बनकर जागी रहती है

कभी खुद के होने का भरम होती है
कभी किस्मत का यकीन बनकर रहती है

मगर उसका रंग हर बार एक सा होता है
वो वक़्त की घड़ी में हरी होती है
और रगो में नीली बनकर बहती है।


अनामिका चक्रवर्ती अनु
तुम

यूँ ही किसी बात पर हँसते हँसते
मेरा हाथ पकड़कर
अक्सर टिक जाती हो जब तुम मेरे कंधे पर
तुम्हारी हँसी से झरते हुए फूलों को 
चुन लेना चाहता हूँ अपनी पलकों से
देना चाहता हूँ उन्हें एक सपना
तुम्हारे 'तुम' कहने पर 
स्पर्श करना चाहता हूँ उन शब्दों को 
जिसे मेरे लिये करती हो पूरा 'तुम' के संबोधन से
मैं शाम को डूबा हुआ देखता हूँ उदासी के 
ग्रे कलर में 
जब साथ मेरे होकर तुम कहीं और होती हो
तुम ढूँढती हो एक टूटते तारे को
जिसमें तुम्हारे सपनों का सच होना लिखा हो शायद
मगर उसी टूटते तारे से माँग लेना चाहता हूँ
तुम्हें मैं 
तुम्हारे हँसते हुए लम्हों को हर पल तुम्हें देने के एक वादे के साथ


© अनामिका_चक्रवर्ती अनु

अभी सिर्फ अंश ----
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हमेंशा लगता है मैं इस जगह सदियाँ गुजार सकती हूँ क्योंकि शायद यही वो जगह है जहाँ मैं खुद से जी भर कर बातें कर सकती हूँ। खुद से मिल सकती हूँ।
सड़क पर चल रही मादक रौशनी में डूबी अनगिनत गाड़ियों और आसमान पर बिखरे अनगिनत रौशनी में भीगे तारो के बीच पच्चीसवें माले की इस खिड़की के सामनें
 एक शून्य मेरी तरह ही अंधेरे में डूबा हुआ है। वो भी खुद से यहीं मिलता है बातें करता है।
बहुत कुछ ऐसा होता है जो सिर्फ शून्य में ही हो सकता है। पर सांसे दोनो की चुप है तभी तो इतनी गहरी खामोशी छायी हुयी है।
और इस वक्त अगर सांसे कहीं चल रही है तो वो इस काॅफी मग से उठते हुये धुएँ में , वो भी जाने कब रुक जाएगी।
कितनी अजीब बात है आज से सात साल पहले जिसके लिए कितने लोग पागल थे और मैं भी पागाल थी और आज भी हो रही हूँ उसी के लिए मगर सिर्फ मैं अकेली ...
ये पागलपन भी कमाल का होता है ...
दीवाने थे जिस खुशबु के सब
उस परफ़्युम से अब मेरा दम घुटनें लगा है उसी से जैसे मेरे होठ मेरी जीभ मेरी हर सांस बदबुदार होते जा रहे है । भले ही उन आँखों में गजब का नशा है पर उसमें से अब प्यार की नहीं वासना की मारक्त गंध आने लगी है। नशा अब नोंचता है खून को पानी कर देता है ....
किसी से अलग रहकर ना जीने का डर साथ रहनें को कितना मुश्किल कर देता है कि खुद का जिस्म ही खुद में बोझ सा लगनें लगता है।

ओह ! काॅफी भी ठंडी हो गयी और मग भी मन का क्या कहूँ .....
सड़क पर मादक रौशनी अब भी रफ़्तार से दौडती गाड़ियों को चूम रही है ......


©अनामिका चक्रवर्ती अनु
20/2/2015

Saturday, February 3, 2018






मन यदि सागर हो
प्रेम नदी हो जाना चाहता है
सागर के सीने पर सर रखकर

मन प्राण से डूब जाना चाहती है
अनामिका चक्रवर्ती 


महानगर 

साँकल होती है शहर के दरवाजों पर
घरों में कुण्डियाँ नहीं लगी होती हैं
हर कस्बा शहर जाकर बूढ़ा हो जाता है,
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है।

मिट्टी के आँगन पर पड़ी दरारें
नहीं भरी जा सकती कंक्रीट से
और जहाँ भर दी जाती हैं,
वहाँ दरारें रिश्तों में पड़ी होती हैं।

नजर आता है आसमाँ गलियों सा,
जमीं पर गलियाँ,
अनाथों सी लगती है
रौनकें तो सिर्फ रातों को होती हैं यहाँ
स्ट्रीट लाईटों और गाड़ियों की हेडलईटों से।

दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से,
वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।




अनामिका चक्रवर्ती अनु 
 गलतियाँ

गलतियाँ मक्खी की तरह
भिनभिनाती हैं आसपास ही।
और चींटियों की तरह
कानो में अपनी पैंठ बना लेती हैं।

एक झनझनाहट के साथ
ऊँगुलियाँ कानो में जाकर कुछ टटोलती हैं
और उसके पोरो में चिपक जाती है
गलतियों की चिपचिपाहट।

बहुत झटकने के बाद भी,
नहीं छूटती, नहीं जाती ये
यहीं से शुरू होती है
गलतियों के बदबू फैलने का डर।

मगर उसकी सड़ांध को रोक पाना,
किसी झूठी सफाई के वश की भी बात नहीं रह जाती।
झूठ के सिलसिले पेंच बनकर उलझ जाए
ज़िन्दगी में।
बेहतर हो कि मान लिया जाये,
स्वीकार कर लिया जाये अपनी गलतियों को।



अनामिका चक्रवर्ती अनु
चैट करती हुई लड़की


 चैट करती हुई लड़की को
रात बहुत प्यारी सी लगती है

जैसे खिड़की के अधखुले पट से
      रातरानी की भीनी महक आती सी लगती है।
नर्म रेशमी चंचल सी हवा
      बालों को छूकर गुजरती सी लगती है ।

चैट करती हुई लड़की को
रात अल्हड़ सी लगती है।

टीन की छत पर बारिश की बूँदे
          दिल से शरारत करती सी लगती है
गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू
           दिल में उतरती सी लगती है।

चैट करती हुई लड़की को
रात अनोखी सी लगती है।

खुद से मिलने की एक
          ह़सीन वज़ह
सी लगती है
की-पैड की रोशनी में मुस्कुराहट
               चाँदनी चमकीली सी लगती है

चैट करती हुई लड़की को
रात सुहानी लगती है

आँखों में मचलते ख़्वाब
            मनी प्लान्ट की बेल से लगते हैं
दूर से आती झींगुर की आवाजें
         कान्हा की बासुँरी की तान सी लगती है

चैट करती हुई लड़की को
रात बड़ी जादुई सी लगती है

रात के दरिया में ख़शी से भीगी भीगी
चैट करती हुई लड़की को
अल सुबह की नींद मखमली सी लगती है।


अनामिका चक्रवर्ती अनु

Thursday, February 1, 2018


स्त्री

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सजग हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सहज हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए धैर्य हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए तृष्णा हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए प्रकृति हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए गर्भ हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए छाया हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए माया हूँ।


मैं स्त्री हूँ ,
इसलिए अम्बर हूँ
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए धरा हूँ 

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सुंदर हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए शक्ति हूँ।

मैं एक स्त्री हूँ,
इसलिए तुम पुरुष हो।
तुम एक पुरुष हो,
इसलिए मैं स्त्री हूँ।
तुम और मै
हम हैं।
इसलिये जीवन है।



©अनामिका चक्रवर्ती अनु
मृत्यु
~~~~
नहीं होती मृत्यु अकस्मात्
न होती मिथ्या
न कोई भ्रम होता है
जीवन में कभी कभी
इ्च्छा में शामिल भी होती है


मृत्यु अपूर्ण नहीं होती
न होती कोई जिद है
न इसका कोई अंत होता है न शुरूआत
न ये प्रतिद्वंदी है
न प्रतिस्पर्धा करती है
इसकी जीत तय है
इस पर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता
इसे किसी उम्र ,बंधन और संबंध से
कोई मोह नहीं होता

ये न जाने जात-पात, ऊँच-नीच

बड़ी निष्ठा और आत्मविश्वास के साथ
ले जाती है हमें अपनें तय समय में
क्योंकी जानती है वह
संपूर्ण संसार में चाहे हम
सबका साथ छोड़ दें
मृत्यु का साथ कभी नहीं छोड़ते
एक बार जो साथ जाते है,
तो बस चलें ही जाते है
फिर कभी न लौटनें के लिये।


मृत्यु हत्या नहीं, दुर्घटना नहीं,
आत्महत्या नहीं और कोई आपदा भी नहीं।
मृत्यु मध्य रात्री या भोर के अंतिम क्षण का
कोई स्वप्न भी नहीं।
एक सर्व सत्य है।
मृत्यु तय होती है
मृत्यु अकस्मात् नहीं होती।



©अनामिका चक्रवर्ती अनु
प्रेम की गाँठों से 

तुमने महीन धागा बनाकर मुझे
अपने ग़मो की तुरपाई कर ली
और हर तुरपाई के आखिर में
बाँध दी प्रेम की गाँठ
ताकि न कभी मैं उधढ़ूँ
न कभी तुम्हारे घाव खुलें
फिर भी चटक ही जाता है 
कोई दर्द कभी कभी
जब स्मृतियों पर बादल गहरे हो जाते हैं
आता तो है दिल में कि
सिरे से धागे को निकाल दो 
मगर लगी हुई प्रेम की गाँठों से 
घाव के गहरे होकर
दर्द के बढ़ जाने का भय भी बढ़ जाता है
तुम्हारे इस भय से
बढ़ जाता है मेरा भी भय
क्योंकि महीन धागों पर लगी गाँठें
कभी खुलती नहीं
टूटकर समाप्त हो जाता है
उनका अस्तित्व भी।

©अनामिका चक्रवर्ती अनु

30/12/15

Wednesday, January 31, 2018



जिन्दगी की टूटी ख़्वाहिशो से 
गुजरती हुई रातें
इतनी बारीक होती हैं

के बिना पलकें भिगोएं समेटी नहीं जाती

अंधेरा सर्द बनकर
इस कदर दिल में उतरता है
के पलकें दिल के बोझ से
सुबह फिर उठाई नहीं जाती

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अनामिका चक्रवर्ती अनु



आमंत्रण
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कोई आमंत्रण तो नहीं दिया था
फिर क्यों आये तुम जीवन में
बीज प्रेम का ,
क्यों बोया मेरे मन में

स्वीकृति दी जब स्वयं को
तुम में घुल जाने

मूक हुए क्यों
तब तुम छल में

न पूर्ण आते हो
न पूर्ण जाते हो
क्यों विश्वास को
व्यथा पर प्रश्न बनाते हो

मंथन ये कैसा किया प्रेम का
बनाकर अमृत मुझको,
विष क्यों दिया जीवन में



© अनामिका चक्रवर्ती अनु 

मैं तुम्हारे होने को महसूस करती रही
तुम थे या नहीं, हो या नहीं
प्रश्न करती रही ।

विरान बंजर खंडहर ,
सदियों से कोई बसा नहीं जिसमें ,
गूँजी न हो कोई आवाज ।

या ऐसी कोई सड़क
लंबी दूरी तक जाते हुये कहीं
इस तरह थम गई,
जैसे उसके आगे कोई दुनियाँ ही नहीं है।

एक जला सा पन्ना,
जिसमें कुछ अक्षर नजर तो आये
पर कुछ कह नहीं पाये

जैसे वो खुद न जले ,
जली हो सिर्फ उनकी जुबान
मैं तुम्हारे होने को महसूस करती रही।

नदी किनारे सोई रेत की एक नदी ,
चट्टानों को निहारती हुई,
अपने सीने पर कदमों के चिन्ह संभालती हुई
मैं तुम्हें महसूस करती रही
तुम थे या नहीं ।

©अनामिका चक्रवर्ती अनु

Tuesday, January 30, 2018

_शायद--- डायरी के सुस्ताते पन्नों से ........
कभी कभी ज़िन्दगी निभाने के लिये ज़िन्दगी कम पड़ने लगती है और समय रेत की तरह हाथ से फिसल जाता है ,
और हम आधे अधुरे से दुनियाँ से चले जाते है और अपने पीछे छोड़ जाते है "शायद"
सच ये "शायद" भी बड़ी अजीब चीज होती है कभी हँसाती है तो कभी रुलाती है।
क्योंकि "शायद" को लेकर इंसान अपने में नहीं रहता। इसी बात को खुद से जोड़कर कि यदि ऐसा होता तो "शायद" यदि वैसा होता । अपनी पूरी ज़िन्दगी बिताता है, उसके दिमाग पर "शायद" की परत चढ़ जाती है और वो कुछ भी निश्चित करने में सक्षम नहीं हो पाता ।
हर घटना "शायद" की भेंट चढ़ी होती है। हर परिवर्तन को "शायद" से जोड़ दिया जाता है।
यहाँ तक परम सत्य मृत्यु भी "शायद" की एक गाँठ अपने पीछे छोड़ जाती है।
फिरभी यही वो "शायद" होता है जो जीने की वजह भी देता है...... एक उम्मीद देता है..........
ज़िन्दगी में कोई दौर तो ऐसा आता होगा
जब खुद के लिये तु खुद को माँगता होगा
©अनामिका चक्रवर्ती अनु