Saturday, February 3, 2018

महानगर 

साँकल होती है शहर के दरवाजों पर
घरों में कुण्डियाँ नहीं लगी होती हैं
हर कस्बा शहर जाकर बूढ़ा हो जाता है,
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है।

मिट्टी के आँगन पर पड़ी दरारें
नहीं भरी जा सकती कंक्रीट से
और जहाँ भर दी जाती हैं,
वहाँ दरारें रिश्तों में पड़ी होती हैं।

नजर आता है आसमाँ गलियों सा,
जमीं पर गलियाँ,
अनाथों सी लगती है
रौनकें तो सिर्फ रातों को होती हैं यहाँ
स्ट्रीट लाईटों और गाड़ियों की हेडलईटों से।

दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से,
वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।




अनामिका चक्रवर्ती अनु 

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