Saturday, February 10, 2018

प्रतीक्षा की पीड़ा 

तुम्हारी प्रतीक्षा की पीड़ा 
प्रत्येक पहर में अलग सी होती है

कभी हँसी में दबी होती है

कभी रोजमर्रे के कामों में उलझी रहती है

कभी रिश्तों और जिम्मेदारियों में सहमी होती है
कभी जीवन की आपा धापी में चुप सी रहती है

कभी शहर की भागती सड़कों सी भीड़ होती है
कभी गाँव की पगडंडियों सी सूनी रहती है

कभी डूबती हुई शाम में उदास होती है
कभी भोर की ओस में भीगी सी रहती है

कभी चाँद बनकर बादलों में छुपी होती है
कभी गीली पलकों में नींद बनकर जागी रहती है

कभी खुद के होने का भरम होती है
कभी किस्मत का यकीन बनकर रहती है

मगर उसका रंग हर बार एक सा होता है
वो वक़्त की घड़ी में हरी होती है
और रगो में नीली बनकर बहती है।


अनामिका चक्रवर्ती अनु

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