Saturday, February 17, 2018
Monday, February 12, 2018
शापमुक्त
देह से निकली देह, तुम मात्र देह नहीं हो
तुम्हें देह से स्त्री बनना होगा
तुम्हें वास्ता है उन तमाम स्त्रियों का
जो देह को स्त्री न बना सकी
और स्त्री होने की अतृप्त अभिलाषा मन में लिये
जीवन को अभिशाप की तरह भोगा है
जीवन के आनंद से हमेंशा वंचित रही
स्त्री बनकर उन्हें शाप मुक्त करना होगा
उनकी आत्मा को मोक्ष दिलाना होगा
तुम्हारा स्त्री होना ही उनका स्त्री होना होगा
क्योंकि स्त्री माने ही सर्वशक्ति है सर्वधर्म है
स्त्री होना ॠणी होना नहीं है प्रकृति होना है
सम्मान और गर्व का प्रतिरूप ही स्त्री है।
स्त्री को देह से मुक्त कर स्त्री हो जाओ
पुरुष प्रधानता की दास या प्रतिदव्ंदी होकर नहीं
परस्पर होनें की प्रतिष्ठा होने को स्त्री होनें दो
देह से मुक्त स्त्री ही स्त्री जीवन का सत्य है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
देह से निकली देह, तुम मात्र देह नहीं हो
तुम्हें देह से स्त्री बनना होगा
तुम्हें वास्ता है उन तमाम स्त्रियों का
जो देह को स्त्री न बना सकी
और स्त्री होने की अतृप्त अभिलाषा मन में लिये
जीवन को अभिशाप की तरह भोगा है
जीवन के आनंद से हमेंशा वंचित रही
स्त्री बनकर उन्हें शाप मुक्त करना होगा
उनकी आत्मा को मोक्ष दिलाना होगा
तुम्हारा स्त्री होना ही उनका स्त्री होना होगा
क्योंकि स्त्री माने ही सर्वशक्ति है सर्वधर्म है
स्त्री होना ॠणी होना नहीं है प्रकृति होना है
सम्मान और गर्व का प्रतिरूप ही स्त्री है।
स्त्री को देह से मुक्त कर स्त्री हो जाओ
पुरुष प्रधानता की दास या प्रतिदव्ंदी होकर नहीं
परस्पर होनें की प्रतिष्ठा होने को स्त्री होनें दो
देह से मुक्त स्त्री ही स्त्री जीवन का सत्य है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
नन्हीं गौरैया
जब चहचहाती हो तुम
मेरे घर आँगन में,
लगती हो जैसे
नन्हीं बेटी के पैरो में
छुनछुन करती पायल सी
चुगती हो जब तुम
मेरे घर के अन्न का
मुट्ठी भर दाना
खुश होती तब अन्नपूर्णा सी
तुम प्यारी गौरैया
मेरे बच्चों सी चिरैया
रोज मिलती हो तुम
पहली धूप बनकर
लगती हो तुम
नन्हीं हथेलियों सी
और कभी लगती हो
अबोध मुस्कान सी
जब चहचहाती हो तुम
मेरे घर आँगन में,
लगती हो जैसे
नन्हीं बेटी के पैरो में
छुनछुन करती पायल सी
चुगती हो जब तुम
मेरे घर के अन्न का
मुट्ठी भर दाना
खुश होती तब अन्नपूर्णा सी
तुम प्यारी गौरैया
मेरे बच्चों सी चिरैया
रोज मिलती हो तुम
पहली धूप बनकर
लगती हो तुम
नन्हीं हथेलियों सी
और कभी लगती हो
अबोध मुस्कान सी
अनामिका चक्रवर्ती अनु
Saturday, February 10, 2018
आँखों की भूख
पेट की भूख
जब आँखों में उतरने लगती है
तुम्हारे काँटे में फँसी
मरी हुई मछलियाँ
तुम वापस पानी में छोड़कर,
ढूंढते हो
जिंदा मछलियाँ
उन्हें फिर मारकर खाने के लिए
भूख की आग में सेंक कर
अपने लोभ को पूरा करने के लिए
तुम्हारा यही स्वाभाव समाज में घुल गया
फिर तुम ढूंढने लगे
बार बार उन्हें शिकार बनाने को
कई बार
जिंदा मछलियों को फिर नये ढंग से
कांटे में फाँसने के लिए
भून कर खाने के लिए
तब भुनी हुई मछलियों से नहीं
तुम्हारे दोहरे चरित्र से बू आने लगी
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
पेट की भूख
जब आँखों में उतरने लगती है
तुम्हारे काँटे में फँसी
मरी हुई मछलियाँ
तुम वापस पानी में छोड़कर,
ढूंढते हो
जिंदा मछलियाँ
उन्हें फिर मारकर खाने के लिए
भूख की आग में सेंक कर
अपने लोभ को पूरा करने के लिए
तुम्हारा यही स्वाभाव समाज में घुल गया
फिर तुम ढूंढने लगे
बार बार उन्हें शिकार बनाने को
कई बार
जिंदा मछलियों को फिर नये ढंग से
कांटे में फाँसने के लिए
भून कर खाने के लिए
तब भुनी हुई मछलियों से नहीं
तुम्हारे दोहरे चरित्र से बू आने लगी
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
प्रतीक्षा की पीड़ा
तुम्हारी प्रतीक्षा की पीड़ा
प्रत्येक पहर में अलग सी होती है
कभी हँसी में दबी होती है
कभी रोजमर्रे के कामों में उलझी रहती है
कभी रिश्तों और जिम्मेदारियों में सहमी होती है
कभी जीवन की आपा धापी में चुप सी रहती है
कभी शहर की भागती सड़कों सी भीड़ होती है
कभी गाँव की पगडंडियों सी सूनी रहती है
कभी डूबती हुई शाम में उदास होती है
कभी भोर की ओस में भीगी सी रहती है
कभी चाँद बनकर बादलों में छुपी होती है
कभी गीली पलकों में नींद बनकर जागी रहती है
कभी खुद के होने का भरम होती है
कभी किस्मत का यकीन बनकर रहती है
मगर उसका रंग हर बार एक सा होता है
वो वक़्त की घड़ी में हरी होती है
और रगो में नीली बनकर बहती है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
तुम्हारी प्रतीक्षा की पीड़ा
प्रत्येक पहर में अलग सी होती है
कभी हँसी में दबी होती है
कभी रोजमर्रे के कामों में उलझी रहती है
कभी रिश्तों और जिम्मेदारियों में सहमी होती है
कभी जीवन की आपा धापी में चुप सी रहती है
कभी शहर की भागती सड़कों सी भीड़ होती है
कभी गाँव की पगडंडियों सी सूनी रहती है
कभी डूबती हुई शाम में उदास होती है
कभी भोर की ओस में भीगी सी रहती है
कभी चाँद बनकर बादलों में छुपी होती है
कभी गीली पलकों में नींद बनकर जागी रहती है
कभी खुद के होने का भरम होती है
कभी किस्मत का यकीन बनकर रहती है
मगर उसका रंग हर बार एक सा होता है
वो वक़्त की घड़ी में हरी होती है
और रगो में नीली बनकर बहती है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
तुम
यूँ ही किसी बात पर हँसते हँसते
मेरा हाथ पकड़कर
अक्सर टिक जाती हो जब तुम मेरे कंधे पर
तुम्हारी हँसी से झरते हुए फूलों को
चुन लेना चाहता हूँ अपनी पलकों से
देना चाहता हूँ उन्हें एक सपना
तुम्हारे 'तुम' कहने पर
स्पर्श करना चाहता हूँ उन शब्दों को
जिसे मेरे लिये करती हो पूरा 'तुम' के संबोधन से
मैं शाम को डूबा हुआ देखता हूँ उदासी के
ग्रे कलर में
जब साथ मेरे होकर तुम कहीं और होती हो
तुम ढूँढती हो एक टूटते तारे को
जिसमें तुम्हारे सपनों का सच होना लिखा हो शायद
मगर उसी टूटते तारे से माँग लेना चाहता हूँ
तुम्हें मैं
तुम्हारे हँसते हुए लम्हों को हर पल तुम्हें देने के एक वादे के साथ
© अनामिका_चक्रवर्ती अनु
यूँ ही किसी बात पर हँसते हँसते
मेरा हाथ पकड़कर
अक्सर टिक जाती हो जब तुम मेरे कंधे पर
तुम्हारी हँसी से झरते हुए फूलों को
चुन लेना चाहता हूँ अपनी पलकों से
देना चाहता हूँ उन्हें एक सपना
तुम्हारे 'तुम' कहने पर
स्पर्श करना चाहता हूँ उन शब्दों को
जिसे मेरे लिये करती हो पूरा 'तुम' के संबोधन से
मैं शाम को डूबा हुआ देखता हूँ उदासी के
ग्रे कलर में
जब साथ मेरे होकर तुम कहीं और होती हो
तुम ढूँढती हो एक टूटते तारे को
जिसमें तुम्हारे सपनों का सच होना लिखा हो शायद
मगर उसी टूटते तारे से माँग लेना चाहता हूँ
तुम्हें मैं
तुम्हारे हँसते हुए लम्हों को हर पल तुम्हें देने के एक वादे के साथ
© अनामिका_चक्रवर्ती अनु
अभी सिर्फ अंश ----
---------------------------------------- हमेंशा लगता है मैं इस जगह सदियाँ गुजार सकती हूँ क्योंकि शायद यही वो जगह है जहाँ मैं खुद से जी भर कर बातें कर सकती हूँ। खुद से मिल सकती हूँ। सड़क पर चल रही मादक रौशनी में डूबी अनगिनत गाड़ियों और आसमान पर बिखरे अनगिनत रौशनी में भीगे तारो के बीच पच्चीसवें माले की इस खिड़की के सामनें एक शून्य मेरी तरह ही अंधेरे में डूबा हुआ है। वो भी खुद से यहीं मिलता है बातें करता है। बहुत कुछ ऐसा होता है जो सिर्फ शून्य में ही हो सकता है। पर सांसे दोनो की चुप है तभी तो इतनी गहरी खामोशी छायी हुयी है। और इस वक्त अगर सांसे कहीं चल रही है तो वो इस काॅफी मग से उठते हुये धुएँ में , वो भी जाने कब रुक जाएगी। कितनी अजीब बात है आज से सात साल पहले जिसके लिए कितने लोग पागल थे और मैं भी पागाल थी और आज भी हो रही हूँ उसी के लिए मगर सिर्फ मैं अकेली ... ये पागलपन भी कमाल का होता है ... दीवाने थे जिस खुशबु के सब उस परफ़्युम से अब मेरा दम घुटनें लगा है उसी से जैसे मेरे होठ मेरी जीभ मेरी हर सांस बदबुदार होते जा रहे है । भले ही उन आँखों में गजब का नशा है पर उसमें से अब प्यार की नहीं वासना की मारक्त गंध आने लगी है। नशा अब नोंचता है खून को पानी कर देता है .... किसी से अलग रहकर ना जीने का डर साथ रहनें को कितना मुश्किल कर देता है कि खुद का जिस्म ही खुद में बोझ सा लगनें लगता है। ओह ! काॅफी भी ठंडी हो गयी और मग भी मन का क्या कहूँ ..... सड़क पर मादक रौशनी अब भी रफ़्तार से दौडती गाड़ियों को चूम रही है ...... ©अनामिका चक्रवर्ती अनु
20/2/2015
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Saturday, February 3, 2018
महानगर
साँकल होती है शहर के दरवाजों पर
घरों में कुण्डियाँ नहीं लगी होती हैं
हर कस्बा शहर जाकर बूढ़ा हो जाता है,
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है।
मिट्टी के आँगन पर पड़ी दरारें
नहीं भरी जा सकती कंक्रीट से
और जहाँ भर दी जाती हैं,
वहाँ दरारें रिश्तों में पड़ी होती हैं।
नजर आता है आसमाँ गलियों सा,
जमीं पर गलियाँ,
अनाथों सी लगती है
रौनकें तो सिर्फ रातों को होती हैं यहाँ
स्ट्रीट लाईटों और गाड़ियों की हेडलईटों से।
दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से,
वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
साँकल होती है शहर के दरवाजों पर
घरों में कुण्डियाँ नहीं लगी होती हैं
हर कस्बा शहर जाकर बूढ़ा हो जाता है,
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है।
मिट्टी के आँगन पर पड़ी दरारें
नहीं भरी जा सकती कंक्रीट से
और जहाँ भर दी जाती हैं,
वहाँ दरारें रिश्तों में पड़ी होती हैं।
नजर आता है आसमाँ गलियों सा,
जमीं पर गलियाँ,
अनाथों सी लगती है
रौनकें तो सिर्फ रातों को होती हैं यहाँ
स्ट्रीट लाईटों और गाड़ियों की हेडलईटों से।
दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से,
वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
गलतियाँ
गलतियाँ मक्खी की तरह
भिनभिनाती हैं आसपास ही।
और चींटियों की तरह
कानो में अपनी पैंठ बना लेती हैं।
एक झनझनाहट के साथ
ऊँगुलियाँ कानो में जाकर कुछ टटोलती हैं
और उसके पोरो में चिपक जाती है
गलतियों की चिपचिपाहट।
बहुत झटकने के बाद भी,
नहीं छूटती, नहीं जाती ये
यहीं से शुरू होती है
गलतियों के बदबू फैलने का डर।
मगर उसकी सड़ांध को रोक पाना,
किसी झूठी सफाई के वश की भी बात नहीं रह जाती।
झूठ के सिलसिले पेंच बनकर उलझ जाए
ज़िन्दगी में।
बेहतर हो कि मान लिया जाये,
स्वीकार कर लिया जाये अपनी गलतियों को।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
गलतियाँ मक्खी की तरह
भिनभिनाती हैं आसपास ही।
और चींटियों की तरह
कानो में अपनी पैंठ बना लेती हैं।
एक झनझनाहट के साथ
ऊँगुलियाँ कानो में जाकर कुछ टटोलती हैं
और उसके पोरो में चिपक जाती है
गलतियों की चिपचिपाहट।
बहुत झटकने के बाद भी,
नहीं छूटती, नहीं जाती ये
यहीं से शुरू होती है
गलतियों के बदबू फैलने का डर।
मगर उसकी सड़ांध को रोक पाना,
किसी झूठी सफाई के वश की भी बात नहीं रह जाती।
झूठ के सिलसिले पेंच बनकर उलझ जाए
ज़िन्दगी में।
बेहतर हो कि मान लिया जाये,
स्वीकार कर लिया जाये अपनी गलतियों को।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
चैट करती हुई लड़की
चैट करती हुई लड़की को
रात बहुत प्यारी सी लगती है
जैसे खिड़की के अधखुले पट से
रातरानी की भीनी महक आती सी लगती है।
नर्म रेशमी चंचल सी हवा
बालों को छूकर गुजरती सी लगती है ।
चैट करती हुई लड़की को
रात अल्हड़ सी लगती है।
टीन की छत पर बारिश की बूँदे
दिल से शरारत करती सी लगती है
गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू
दिल में उतरती सी लगती है।
चैट करती हुई लड़की को
रात अनोखी सी लगती है।
खुद से मिलने की एक
ह़सीन वज़हसी लगती है
की-पैड की रोशनी में मुस्कुराहट
चाँदनी चमकीली सी लगती है
चैट करती हुई लड़की को
रात सुहानी लगती है
आँखों में मचलते ख़्वाब
मनी प्लान्ट की बेल से लगते हैं
दूर से आती झींगुर की आवाजें
कान्हा की बासुँरी की तान सी लगती है
चैट करती हुई लड़की को
रात बड़ी जादुई सी लगती है
रात के दरिया में ख़शी से भीगी भीगी
चैट करती हुई लड़की को
अल सुबह की नींद मखमली सी लगती है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
चैट करती हुई लड़की को
रात बहुत प्यारी सी लगती है
जैसे खिड़की के अधखुले पट से
रातरानी की भीनी महक आती सी लगती है।
नर्म रेशमी चंचल सी हवा
बालों को छूकर गुजरती सी लगती है ।
चैट करती हुई लड़की को
रात अल्हड़ सी लगती है।
टीन की छत पर बारिश की बूँदे
दिल से शरारत करती सी लगती है
गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू
दिल में उतरती सी लगती है।
चैट करती हुई लड़की को
रात अनोखी सी लगती है।
खुद से मिलने की एक
ह़सीन वज़हसी लगती है
की-पैड की रोशनी में मुस्कुराहट
चाँदनी चमकीली सी लगती है
चैट करती हुई लड़की को
रात सुहानी लगती है
आँखों में मचलते ख़्वाब
मनी प्लान्ट की बेल से लगते हैं
दूर से आती झींगुर की आवाजें
कान्हा की बासुँरी की तान सी लगती है
चैट करती हुई लड़की को
रात बड़ी जादुई सी लगती है
रात के दरिया में ख़शी से भीगी भीगी
चैट करती हुई लड़की को
अल सुबह की नींद मखमली सी लगती है।
अनामिका चक्रवर्ती अनु
Thursday, February 1, 2018
स्त्री
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सजग हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सहज हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए धैर्य हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए तृष्णा हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए प्रकृति हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए गर्भ हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए छाया हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए माया हूँ।
मैं स्त्री हूँ ,
इसलिए अम्बर हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए धरा हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सुंदर हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए शक्ति हूँ।
मैं एक स्त्री हूँ,
इसलिए तुम पुरुष हो।
तुम एक पुरुष हो,
इसलिए मैं स्त्री हूँ।
तुम और मै
हम हैं।
इसलिये जीवन है।
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
मृत्यु
~~~~
नहीं होती मृत्यु अकस्मात्
न होती मिथ्या
न कोई भ्रम होता है
जीवन में कभी कभी
इ्च्छा में शामिल भी होती है
मृत्यु अपूर्ण नहीं होती
न होती कोई जिद है
न इसका कोई अंत होता है न शुरूआत
न ये प्रतिद्वंदी है
न प्रतिस्पर्धा करती है
इसकी जीत तय है
इस पर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता
इसे किसी उम्र ,बंधन और संबंध से
कोई मोह नहीं होता
ये न जाने जात-पात, ऊँच-नीच
बड़ी निष्ठा और आत्मविश्वास के साथ
ले जाती है हमें अपनें तय समय में
क्योंकी जानती है वह
संपूर्ण संसार में चाहे हम
सबका साथ छोड़ दें
मृत्यु का साथ कभी नहीं छोड़ते
एक बार जो साथ जाते है,
तो बस चलें ही जाते है
फिर कभी न लौटनें के लिये।
मृत्यु हत्या नहीं, दुर्घटना नहीं,
आत्महत्या नहीं और कोई आपदा भी नहीं।
मृत्यु मध्य रात्री या भोर के अंतिम क्षण का
कोई स्वप्न भी नहीं।
एक सर्व सत्य है।
मृत्यु तय होती है
मृत्यु अकस्मात् नहीं होती।
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
~~~~
नहीं होती मृत्यु अकस्मात्
न होती मिथ्या
न कोई भ्रम होता है
जीवन में कभी कभी
इ्च्छा में शामिल भी होती है
मृत्यु अपूर्ण नहीं होती
न होती कोई जिद है
न इसका कोई अंत होता है न शुरूआत
न ये प्रतिद्वंदी है
न प्रतिस्पर्धा करती है
इसकी जीत तय है
इस पर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता
इसे किसी उम्र ,बंधन और संबंध से
कोई मोह नहीं होता
ये न जाने जात-पात, ऊँच-नीच
बड़ी निष्ठा और आत्मविश्वास के साथ
ले जाती है हमें अपनें तय समय में
क्योंकी जानती है वह
संपूर्ण संसार में चाहे हम
सबका साथ छोड़ दें
मृत्यु का साथ कभी नहीं छोड़ते
एक बार जो साथ जाते है,
तो बस चलें ही जाते है
फिर कभी न लौटनें के लिये।
मृत्यु हत्या नहीं, दुर्घटना नहीं,
आत्महत्या नहीं और कोई आपदा भी नहीं।
मृत्यु मध्य रात्री या भोर के अंतिम क्षण का
कोई स्वप्न भी नहीं।
एक सर्व सत्य है।
मृत्यु तय होती है
मृत्यु अकस्मात् नहीं होती।
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
प्रेम की गाँठों से
तुमने महीन धागा बनाकर मुझे
अपने ग़मो की तुरपाई कर ली
और हर तुरपाई के आखिर में
बाँध दी प्रेम की गाँठ
ताकि न कभी मैं उधढ़ूँ
न कभी तुम्हारे घाव खुलें
अपने ग़मो की तुरपाई कर ली
और हर तुरपाई के आखिर में
बाँध दी प्रेम की गाँठ
ताकि न कभी मैं उधढ़ूँ
न कभी तुम्हारे घाव खुलें
फिर भी चटक ही जाता है
कोई दर्द कभी कभी
जब स्मृतियों पर बादल गहरे हो जाते हैं
आता तो है दिल में कि
सिरे से धागे को निकाल दो
जब स्मृतियों पर बादल गहरे हो जाते हैं
आता तो है दिल में कि
सिरे से धागे को निकाल दो
मगर लगी हुई प्रेम की गाँठों से
घाव के गहरे होकर
दर्द के बढ़ जाने का भय भी बढ़ जाता है
तुम्हारे इस भय से
बढ़ जाता है मेरा भी भय
क्योंकि महीन धागों पर लगी गाँठें
कभी खुलती नहीं
टूटकर समाप्त हो जाता है
उनका अस्तित्व भी।
दर्द के बढ़ जाने का भय भी बढ़ जाता है
तुम्हारे इस भय से
बढ़ जाता है मेरा भी भय
क्योंकि महीन धागों पर लगी गाँठें
कभी खुलती नहीं
टूटकर समाप्त हो जाता है
उनका अस्तित्व भी।
©अनामिका चक्रवर्ती अनु
30/12/15
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