Wednesday, January 31, 2018


मैं तुम्हारे होने को महसूस करती रही
तुम थे या नहीं, हो या नहीं
प्रश्न करती रही ।

विरान बंजर खंडहर ,
सदियों से कोई बसा नहीं जिसमें ,
गूँजी न हो कोई आवाज ।

या ऐसी कोई सड़क
लंबी दूरी तक जाते हुये कहीं
इस तरह थम गई,
जैसे उसके आगे कोई दुनियाँ ही नहीं है।

एक जला सा पन्ना,
जिसमें कुछ अक्षर नजर तो आये
पर कुछ कह नहीं पाये

जैसे वो खुद न जले ,
जली हो सिर्फ उनकी जुबान
मैं तुम्हारे होने को महसूस करती रही।

नदी किनारे सोई रेत की एक नदी ,
चट्टानों को निहारती हुई,
अपने सीने पर कदमों के चिन्ह संभालती हुई
मैं तुम्हें महसूस करती रही
तुम थे या नहीं ।

©अनामिका चक्रवर्ती अनु

2 comments:

  1. बहुत सुंदर
    बहुत अच्छा लिखती हैं
    मैं साधारण पाठक हूँ,साहित्य का ज्ञान नहीं पर भावनाओं की अनुभूति मेरा हृदय कर लेता है।

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  2. बहुत बहुत आभार आपका
    ह्रदय से धन्यवाद आपका विमल जी

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