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तुम्हारे मौन से सारे शब्द निराकार हो जाते हैं
उन्हें वर्णो के साथ मात्राओं के आभूषण से सुसज्जीत करती हूँ
परन्तु तुम तक उनको पहूँचाना
जैसे पूर्व से उगने वाले सूर्य को
पश्चिम से आने का आमंत्रण देना है
मैं पश्चिम की खिड़की से देखती हूँ जाते हुए तुम्हें
पूर्व की दिवारों पर धूप को रोके छाया सी
देखना चाहती हूँ कभी तुम्हें अपनी ओर आते हुए बढ़ती धूप की तरह
परन्तु पूर्व में न कोई खिड़की खुलती है
न दरवाजा जिससे आती हुई धूप से
तपना चाहती हूँ और तपते हुऐ
मात्राओं के आभूषण से सजे शब्दों से
तुम्हारा मौन का स्वर पढ़ना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ कितने कोरस हैं तुम्हारे
मौन के स्वर में ।
उन्हें वर्णो के साथ मात्राओं के आभूषण से सुसज्जीत करती हूँ
परन्तु तुम तक उनको पहूँचाना
जैसे पूर्व से उगने वाले सूर्य को
पश्चिम से आने का आमंत्रण देना है
मैं पश्चिम की खिड़की से देखती हूँ जाते हुए तुम्हें
पूर्व की दिवारों पर धूप को रोके छाया सी
देखना चाहती हूँ कभी तुम्हें अपनी ओर आते हुए बढ़ती धूप की तरह
परन्तु पूर्व में न कोई खिड़की खुलती है
न दरवाजा जिससे आती हुई धूप से
तपना चाहती हूँ और तपते हुऐ
मात्राओं के आभूषण से सजे शब्दों से
तुम्हारा मौन का स्वर पढ़ना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ कितने कोरस हैं तुम्हारे
मौन के स्वर में ।
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति 🌾⚘⚘🌾
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