Sunday, July 16, 2017

अर्द्धविराम

तुम्हें देर तलक़ निहारते हुए
ये सोचती हूँ मैं
पुरुष का कौन सा चित्र उकेरा हुआ देखूँ तुममें,

किस तरह करूँ तुमसे प्रेम, 
बाल्यावस्था में जाकर या प्रौढ़ावस्था में आकर 
या अपना संपूर्ण यौवन सौप दूँ तुम्हें प्रेम करते हुये।
कैसे ध्वस्त होगा रिक्त का तट,संपूर्णता में पू्र्ण होकर...


©अनामिका चक्रवर्ती अनु

4 comments:

  1. रूई के फाहे जैसे शब्द....मगर, मन जैसे दब जाता है कुछ सवालों से...

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  2. छोटे आकार में बड़ी कविता

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